कल वक़्त के पन्नों को पलट के देखा तोह
तुमसे मुलाक़ात हो गयी।
वो जो jacket ख़रीदा था तूमने पिछले साल
वोही पेहनी थी तुमने,
और मैं साधे कुरते में था।
वोह वक़्त भी पुराना होगा शायद,
क्यूंकि तुम्हारी जुल्फें अभी भी रात सी थी
और मेरी नज़रों को ऐनक की नज़र नहीं लगी थी।
कुछ देर बैठा तुम्हारे साथ,
जी भर के देखा
और फिर चल दिया...
अब नजाने फिर कब वक़्त मिलेगी...
Sunday, April 10, 2011
वक़्त
Posted by systematic chaos at 10:34 AM 0 comments
Labels: Poems
Subscribe to:
Posts (Atom)