याद होगा तुम्हे,
वोह गर्मियों की शामें
जो गुजरती थी तुम्हारे
घर के छत पर।
सारी दुनिया से दूर
दोनों में खोए हुए
घंटों काट देते थे उस छत पर
तुम ले आती थी
साथ अपने दो प्याली चाय की
और में चुरा लता था कुछ नज़्म गुलज़ार के
और कुछ कबूतर बैठे रहते थे साथ हमारे
यूँही पूरी शाम गुज़र जाती थी
एक दूजे को उन ग़ज़लों में ढूँढ़ते हुए
और फिर एक शाम मैं तो आया
पर तुम न थी साथ मेरे
अब रोज़ तेरे आमद का
इंतजार करता रहता हूँ
सुना हैं आज भी उस छत पर कोई दो जोड़े
मिला करते हैं
दो अध् - पिए चाए की प्याली भी थी रखी हुई
कुच्छ कबूतर थे बैठे हुए,
और वोह गुलज़ार की किताब
पड़ी थी उस पत्थर की मेज़ पर ...
Sunday, June 6, 2010
तुम्हारे घर की वोह छत
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